उस दिन रास्ते से गुजरना मुश्किल हो गया था |
एक जगह तक पहुंचकर यातायात रुकी-रुकी हुई नजर आ रही थी | बहुत धीरे धीरे जब उस जगह तक पहुँच सका, तो देखता क्या हूँ, कि लम्बी कतारें लगी हुई हैं | लोग खड़े हैं गणेशजी के दर्शन के लिए | कोई विशेष तिथि है –- शायद संकष्ट चतुर्थी |
……. मंदिरों के सामने भीड़ बढ़ रही है |
……. महाविद्यालय जानेवाले छात्र , हाथ में नारियल और फूल लेकर, दर्शन की दो दो मील लम्बी कतारों में खड़े हैं | मेरे पढ़े-लिक्खे दोस्त भी इस चपेट में आ रहे हैं |
पास खड़ा आदमी मुझसे कहता है –
—“ ये ख़ास दिन है – इसलिए आज भीड़ ज्यादा है | आज मांग लो, तो जरुर मिल जाता है |”
मैं पूछता हूँ –
—“अच्छा – कल मांगो तो नहीं चलेगा ? क्यूँ — कल गणेशजी की छुट्टी है ?” (!!!)
—– वह आदमी हंसकर मेरी तरफ इस तरह देखता है, जैसे मैं ही कोई अज्ञानी या मूर्ख बालक हूं | भीड़ हटने का नाम नहीं ले रही – ट्रैफिक जाम है – ….. मुझे काम पर पहुँचने में देर हो रही है – “लेट मार्क” लगेगा – तनखा कटेगी शायद ..
……… कुछ नहीं बोल सकता – किसी से नहीं कह सकता – भगवान की बात है – धर्म की बात है !
…… जब महाविद्यालय में किसी रसपूर्ण वैज्ञानिक विषय पर व्याख्यान (लेक्चर) चल रहा हो, तो अचानक कानों का भेद करनेवाली बड़ी आवाज में, पास के प्रार्थनामंदिर से लाऊडस्पीकर पर कर्कश आवाज में बेसुरे भजन या फिल्मी गीत शुरू हो जाते हैं – आवाज इतनी बड़ी हो जाती है कि सभी दरवाजें और खिडकियाँ बंद करने के बावजूद भी आदमी ध्यान केन्द्रित नहीं कर पाता |
…………कुछ नहीं बोल सकता – किसी से नहीं कह सकता – भगवान की बात है – धर्म की बात है !
……. मार्च-अप्रैल के दिन हैं | पड़ोस के बच्चों का इम्तिहान चल रहा है – बच्चें पढ़ रहे हैं – उनकी माँ उन्हें कुछ समझा रही है शायद — एकदम से “धडाम धडाम” जैसी पटाखों की आवाजें शुरू हो जाती हैं – रुकने का नाम ही नहीं लेती ….. किसी भगवान या स्वामी या महाराज की शोभायात्रा निकल पड़ी है – आगे “बैंड-बाजा-बारात” है –
……….कुछ नहीं बोल सकता – किसी से नहीं कह सकता – भगवान की बात है – धर्म की बात है —–
…… मेरे कुछ विद्यार्थी अब कहने लगे हैं – “सर, मैं दोपहर के इस वर्ग में उपस्थित नहीं रह सकता क्यों कि वह मेरी प्रार्थना का समय है |
……….कुछ नहीं बोल सकता – किसी से नहीं कह सकता – भगवान की बात है – धर्म की बात है !
…. मेरे विद्यार्थियों को बड़े प्यार से, ज्ञान की तरफ प्रवृत्त करनेवाला – मैं – इक्कीसवी सदी का, “विज्ञान-सम्बन्धी” विषय का बेचारा अध्यापक भौंचक्का-सा रह जाता हूँ ! “ज्ञानी” “भरतवर्ष” में, इक्कीसवी सदी में “धर्म” और “ज्ञान” के विरोधाभास की इस दारुण अवस्था को देखकर मुझे अचरज होता है |
मैं बोल नहीं पाता – किसी से कह नहीं पाता – कुछ बोलूँ तो लोग कहते हैं – “अरे पागल, सबर करो – इतना नहीं समझता ? – भगवान की बात है – धर्म की बात है – धर्म के काम के लिए तुम्हारा काम थोड़ी देर रुक नहीं सकता ? —“
सोचता हूँ – ‘कर्मयोग’वाले “कृष्ण” भगवन ने क्या कहा था ….. काम रोको …? या काम करते रहो ? (!!!)
लेकिन, चुप हो जाता हूँ – ज्यादा बोलूँ तो हो सकता है, मेरे घर पर पत्थर फेंके जायेंगे – या मेरा सर टूट जायेगा ……. “नास्तिक हो क्या ?” …. नास्तिकों की कोई जगह नहीं —
मेरे सभी तथाकथित “सहिष्णु” धर्म – मुझे सहन नहीं कर सकते ! मेरे “विज्ञान” को, मेरी विचारशक्ति को, मेरे विचार-स्वातंत्र्य को सहन नहीं कर सकते !!! और कहते रहते हैं कि – धर्म “सहिष्णु” होता है !!!
धर्म और भगवान मेरे जीवन में व्यत्यय पैदा कर रहे हैं – मुझे अपना काम करने से रोक रहे हैं – मेरे मन में डर-सा पैदा करने लगे हैं —
मुझे बताया गया था कि शिक्षा (Education) पाने से इन्सान सुशिक्षित / सुसंस्कृत / तर्कवादी बन जाता है | शिक्षा से मनुष्य का जीवन बदल जाता है |
शिक्षा हमें न सिर्फ दुनिया की चीज़ों की जानकारी देती है, बल्कि हमें सोचने की शक्ति देती है – हमें सांस्कृतिक रूप से संपन्न और समृद्ध करती है | …हमें सही और गलत का भेद समझाती है | दुनिया को परखने की ताकत देती है |
और सच पूछो तो सीखने की सही उपलब्धि यही तो होनी चाहिए, कि इन्सान को स्वतंत्र रूप से सोचने की दृष्टि और शक्ति प्राप्त हो | केवल किसी के कहने पर किसी बात को मान लेने को अंध विश्वास कहते है | यह अंध विश्वास की प्रवृत्ति हमें अंध अनुकरण करने की दिशा में ले जाता है | अंध विश्वास के अँधेरे से निकलकर ज्ञान के प्रकाश की ओर ले जाना यह शिक्षा का सबसे बड़ा काम है |
……शिक्षा के बारे में ढाई हजार साल पहले प्लेटो ने यही कहा था |
कईं बार होता ये है कि स्कूली या महाविद्यालयीन शिक्षा पाने के बावजूद, हमारे विचारों में कोई फर्क नहीं पड़ता | मुझे बहुत अफ़सोस होता है, जब “विज्ञान” शाखा में “डिग्री” प्राप्त करनेवाली कोई महिला “भक्ति”, “श्रद्धा” या “आस्था” के नाम पर या “हमारे घर की परंपरा है – करना पड़ता है” के नाम पर, किसी स्पष्टीकरण के बिना उपवास (अनशन) रखती है, व्रत रखती है | …..और फिर और अफ़सोस तब होता है, जब इसका समर्थन करनेवाला ये कहता है कि — “ये तो आस्था का, श्रद्धा का विषय है “…. इससे भी ज्यादा अफ़सोस तब होता है जब लोग ऐसी कृतियों की तारीफ करते हुए कहते हैं कि – ” देखो, सुनंदा कितनी धार्मिक और विनम्र है – इतनी बड़ी शिक्षा पाने के बावजूद भी सुनंदा उपवास रखती है” !!
विद्यार्थियों की बात छोडिये — विज्ञान और गणित के अध्यापक ही पुराण की कथाओं को लेकर भावुक या भाविक बन जाते हैं – मोक्ष और मुक्ति की खोज में लगे रहते हैं !
मुझे लगता है – “विज्ञान” की इससे बड़ी हार कोई नहीं हो सकती |
विज्ञान की सबसे बड़ी देन है – तर्कवाद / तर्कनिष्ठा / तर्कशुद्धता (Rationalism) |
विज्ञान कहता है – “सवाल पूछो | किसी भी चीज़ को इसलिए मत मान लो, कि कोई और कह रहा है – उसे पूछो कि तुम किस आधार पर कह रहे हो | हर चीज को परख लो | इसे कहते हैं – किसी भी चीज़ को सिद्ध करना | इस संज्ञा को कहते हैं – “शास्त्रशुद्ध ” संकल्पना – जो हर जगह, हर बार सही साबित हो ! यह विज्ञान की कार्यपद्धति है |
(मुझे थोड़ी-सी हंसी आ रही है —– आप पढ़ रहे हो ना? ——-
ईश्वर की जो बनी-बनाई कल्पना हजारों सालों से हम पर थोंपी गई है, वह भी तो यही है !!! ईश्वर वो है, जो हर जगह हो, हर बार सही साबित हो, सर्वव्यापी हो ) –
ईश्वर और विज्ञान – धर्म और विज्ञान !!!
बस फर्क सिर्फ इतना है कि “जो हर जगह, हर बार सही साबित हो !” ऐसी “विज्ञान”द्वारा सुस्थापित घटना कोई भी देख सकता है – कभी भी देख सकता है !!! — बार बार उसी प्रयोग को दोहराकर फिर सिद्ध कर सकता है |
(…कहा जाता है कि ईश्वर भी हर जगह, हर बार, सर्वव्यापी है – बस वो आसानी से, और हर किसी को हासिल नहीं होता – गिने-चुने खास लोगों को वह दिखाई देता है – और जिन्हें दिखाई दिया है अब तक, वे हमें ईश्वर के साथ मिला नहीं सकते !!!)
माना जाता है कि अशिक्षित या कम-शिक्षित इन्सानों में अंधश्रद्धा और अंध विश्वास के बसने की संभावना अधिक मात्रा में होती है | लेकिन जब हम पढ़े लिखे और सुशिक्षित लोगों में भी अशिक्षित लोगों की तरह अंधश्रद्धा और अंध विश्वास को पलते हुए देखते हैं, तब समझ में नहीं आता कि, शिक्षा पाने का उन्हें क्या उपयोग हुआ !
धर्म प्राधिकार या शक्ति पर चलता है, और विज्ञान चलता है निरीक्षण, अनुमान, कार्यकारण, और प्रयोगसिद्धता के आधार पर | जब तक कोई बात निरीक्षण और प्रयोग के आधार पर खरी नहीं उतरती, तब तक विज्ञान उसे नहीं मानता | न ही विज्ञान किसी बात को बस इसलिए मानने को तैयार होगा, कि उसे किसी बड़े आदमी ने कहा है | चाहे वह – जिसे कोई “भगवान” मानता है, वह “काल्पनिक भगवान” या “वास्तविक भगवान” भी आकर कोई बात कहने लगे, तो विज्ञान कहेगा – “भगवान महाशय / मिस्टर भगवान, हम जरुर मानेंगे आपकी बात को | …बस, आप उसे सिद्ध करें, साबित करें !!”
यही तो विज्ञान की सबसे बड़ी देन है, कि आप विज्ञान को कोई भी सवाल कर सकते हैं | और — सवाल करने का हक़ हर किसीको है – सवाल कोई भी कर सकता है | सवाल करना, खोजना, सोचना, उस पर अधिक विचार करना, प्रयोग करना, और प्रयोग के बलबूते पर जो सच साबित हो, उसे मानना यह विज्ञान की सबसे बड़ी उपलब्धि है |
और धर्म का अधिष्ठान है “प्राधिकार” (authority / charter / power / perogative). यहाँ सवाल करने की बात कम है | यहाँ विश्वास की बात है, जिसे कुछ लोग “श्रद्धा” का मोहक नाम दे देते हैं | और यह विश्वास इसलिए नहीं कि वह बात शास्त्रशुद्ध आधार पर साबित हो चुकी है – लेकिन विश्वास इसलिए किया जाता है या करना पड़ता है क्यों कि इस बात को “किसी” ने पहले ही कह दिया है |
कौन है वह “पहले” कहनेवाला ? या तो वह स्वयं “भगवन” है (जिसे हर कोई देख नहीं सकता या सिर्फ कुछ गिने-चुने लोग देख सकते हैं या सच पूछों तो देखने का दावा करते हैं ! क्यों कि उन गिने-चुने लोगों ने भगवन को देखते हुए और किसी ने कभी नहीँ देखा है | )
तो, यहाँ बात को मानना पड़ता है इसलिए कि, उसे किसी ने पहले ही कह दिया है | या तो स्वयं भगवन ने, या किसी “महाराज” / “साधु-पुरुष” या बुजुर्ग ने | …..तो सवाल मत पूछो – क्यों कि आप की मति तो बहुत छोटी है या तो आप की बुद्धि की उड़ान इतनी ऊँची हो ही नहीं सकती – और ऐसे हालात में तुम सवाल कर रहे हो, तो उसका साफ मतलब यह है कि या तो तुम्हारी मति मारी गयी है या तुम उद्धत हो, गुस्ताखी कर रहे हो, अश्रद्ध हो, और अश्रद्धों को भगवन कभी प्रसन्न नहीं होतें !
…… तो चलो, बातें करते करते अब हम यहाँ तक तो आ पहुंचे कि, भगवन सबके लिए नहीं है, सबको दर्शन नहीं देतें, सबको प्राप्त नहीं होतें | गिने-चुने, सिद्धपुरुष, और भगवन के लाडले व्यक्तियों को ही भगवन प्राप्त हो जाते हैं |
विज्ञान सबके लिए है, कोई भी उसे सीख सकता है, जान सकता है, सवाल भी कर सकता है …..इस रूप से देखा जाए, तो आप विज्ञान को “समाजवादी” या “साम्यवादी” कह सकते हैं (socialist) !! – जो सबको समान समझता है ….
धर्म कुछ लोगों को “विशेषाधिकार” देता है, और ज्ञान पाने के अधिकार को सीमित करता है | कहता है – तुम्हारी मति कम पड़ेगी इस ब्रह्मज्ञान के लिए – तो एक काम करो – हमेशा भक्ति करते रहो – आसानी से ईश्वर प्राप्त नहीं होतें – तुम्हारे भाग्य में होंगे तो मिलेंगे – वर्ना भक्त बनकर रहो | सवाल पूछे बगैर “लीन” हो जाओ (submit yourself) – बस विश्वास करो (just believe) – शरण में आ जाओ (surrender) !
…… क्या इन विधानों में आपको तानाशाही (dictatorship) साफ़ नजर नहीं आती ? विज्ञान और धर्म में यह अहम् फर्क है – धर्म कहेगा कि “आप मेरा मानोगे तो मैं आपको अभय दूंगा, आप मेरी शरण में आओगे तो मैं आपको अपनाऊंगा, आपका भला करूँगा”…..(You give me this, I will give you that) !
…….क्या इन विधानों में आपको “दुकानदारी” / लेन-देन / अधिकार साफ़ नजर नहीं आता ?
धर्म यह भी बता देता है कि सालोंसाल पहले “धर्मशास्त्र” बन चुका है |
(एक मिनिट – माफ़ करना – मेरी ही एक गलती हो गयी और मुझे फिर हंसी भी आ रही है !! क्यों कि अनवधान से मैंने धर्म-”शास्त्र” कहा !!! “धर्मशास्त्र” !! “धर्म” और “शास्त्र” इन दो शब्दों को एक साथ जोड़ने से और बड़ा विरोधाभास क्या हो सकता है ?? इसलिए मुझे हंसी आ रही थी !!)
और भी एक बारीकी की टेढ़ी-सी बात है — सवाल करोगे या आशंका जताओगे तो ठीक नहीं होगा – पाप हो जायेगा – तुम अश्रद्ध कहलाओगे — यहाँ तक, कि, जो ज्ञान पाना है, वो तो हजारों सैंकड़ो सालों पहले बुजुर्गोंने प्राप्त कर ही लिया है – अब तुम्हें कुछ नया पाने की,खोजने की या करने की जरुरत नहीं हैं – सवाल करने की भी जरुरत नहीं है !
….आप याद कीजिये — “गैलिलिओ” (Galileo) से यही कहा गया था !!!
— तो धर्म इस तरह से – ज्ञान के रास्तों को बंद करता है — सवालों को बंद करता है – जिज्ञासा की खिडकियाँ बंद कर देता है — सोचने की शक्ति को समाप्त कर देता है – नए की खोज करने की सभी संभावनाओं को नष्ट कर देता है | जो कुछ सालों पहले कहा गया था उसे सार्वकालिक समझकर “स्थितिस्थापकत्व” की अवस्था में धर्म हमें हमेशा रखता है | हमारी मति कुंठित कर देता है | “बदलना” (change) यह जो “जीवन” का स्वाभाविक गुण है उससे दूर जाकर धर्म हमें “अगतिक” (static) अवस्था में रोक देता है l (इसी को शायद “ब्रह्मवाक्य” (!!!) कहा गया है !!) विज्ञान “अगतिक” (static) नहीं – “प्रागतिक” (dynamic/changing) है !! विज्ञान रुकता नहीं, चलता है – सोता नहीं, जागता है – विज्ञान “जीवन” की तरह बदलता है – आगे बढ़ता है – नवनिर्माण करता है |
…….. प्रार्थनाघरों के सामने भीड़ बढ़ रही है | मेरे पढ़े-लिक्खे दोस्त, डॉक्टर दोस्त भी इसकी चपेट में आ रहे हैं….. उनकी और भी ज्यादा प्रतिष्ठा है ! क्यों कि, स्वामियों / महाराजाओं / साध्वियों में — मेरे ये दोस्त पढ़े-लिखे हैं – (“क्या बात है – खुद डॉक्टर हैं, लेकिन कितने धार्मिक हैं !”)….
….क्या यह इन्सान की हतबलता है या गतानुगतिकता ? क्या ये भीड़ यह कह रही है कि इन्सान का अपने आप पर से विश्वास धीरे धीरे कम होता जा रहा है – और इन्सान अपने दु:खों का उपाय किसी बाहरी चीज़ में ढूंढ रहा है ? क्या ये अफीम की गोली की तरह बढ़ता नशा यह कह रहा है कि – “में दु:खों का सामना नहीं करना चाहता – सिर्फ दु:खों को भुला देना चाहता हूँ …..”?
………क्या भगवान के सामने बार बार खड़े रहकर इन्सान आन्तरिक शक्ति पाता है ?
…. सुना था कि धर्म या भगवान हमें आन्तरिक और स्थायी शक्ति देता है | ये सच है, और अगर इन्सान शक्ति पाता है, तो इन्सान को बार बार वहां जाकर इस तरह शर्मिन्दा होकर, हतबल होकर दया की भीख क्यों मांगनी पड़ रही है ?
या फिर ऐसा है कि नशे की तरह या किसी तात्कालिक दवा की तरह, इस शक्ति की मात्रा (dose) को भी बार बार, हररोज, हर त्यौहार पर लेना पड़ता है — (आन्तरिक शक्ति के नशे को / दवा को कायम बनाये रखने के लिए…?)
मैंने पढ़ा-सुना था – समाज में अनुशासन और शांति बनाये रखने के लिए “धर्म” का निर्माण हुआ था (न कि हमें ईश्वर के पास पहुँचाने का रास्ता (shortcut) दिखाने के लिए ) | लेकिन आज हजारों साल बाद भी धर्म के नाम पर लोग लड़ रहे हैं – झगड़ रहे हैं – एक दूसरे को अपनीअपनी ताकत दिखा रहे हैं – समुदायों को, मुल्कों को, देशों को तोड़ रहे हैं – और दरअसल इन सभी बातों में आम इन्सानों की जानें जा रही हैं l
दूसरी तरफ हर तरह के स्वामियों, साध्वियों, और महाराजों के नए-नए झुन्ड पैदा हो रहे हैं – हर एक के अलग नियम – अलग भक्त ! आये हर दिन किसी न किसी महाराज की/ परमेश्वर की, जयंती है, मयंती है, उत्सव है, प्रकट दिन है, निर्वाण दिन है, महानिर्वाण है ! कोई अदृश्य होता है, कोई अवतीर्ण होता है !!…. हर स्वामी का अपना अलग “ब्राण्ड” (brand) है | हर कोई कहता है – “शांति चाहिए ? भगवान चाहिए ? मेरे पास आओ – मेरी झुन्ड में शामिल हो जाओ – मेरा ब्राण्ड सबसे बेहतर है ! मैं ही तुम्हे “विश्वशांति” की ओर ले जाऊंगा – मेरी “पाककृति” (रेसिपी/Recipe) से पुण्य का गठन करोगे, तो मैं तुम्हें अगले जन्म में “स्वर्गप्राप्ति” तक पहुचाऊँगा | मैं ही तुम्हें ईश्वर से मिलाऊंगा ! मोक्ष और मुक्ति दिलवाऊंगा !”
….पता नहीं बेचारा ईश्वर कहाँ छुपा हुआ है ! ….उसे पता भी है या नहीं, कि उसकी एजेंसी (agency) कितने लोगों ने ले रखी है और उसके पास सभी एजंटों का हिसाब है भी या नहीं — और उसे कैसे पता चलता है कि कौनसा भक्त कौनसे एजंट की तरफ से आया हुआ है !
इन स्वामियों की, पंथों की किताबें हैं, नोट्स हैं ! जिनका स्रोत पश्चिमी है, उनकी भी हर स्थानीय भाषा में किताबें है ! हर एक की अपनी अपनी कक्षाएँ हैं, परीक्षाएँ है !! “लेवल्स” (levels) हैं – “ग्रेड्स” (grades) हैं !! उनमें हर किस्म के प्रश्न हैं – निबंध – एक वाक्य में जवाब – बहुपर्यायी प्रश्न (multiple choice questions) !!!!!!!!!!!
……….. हास्य – व्यंग्य – उपहास – विरोधाभास – और अतिशयोक्ति की अंतिम सीमा पर हम खड़े हैं !!!!
स्वामियों के मठ / आश्रम / ध्यानमंदिर हैं – मदरसें, गिरजाघरें हैं – सभी अपने अपने व्यवसाय में मग्न हैं | हर एक का अपना अपना ग्राहक है | ग्राहकों के पास समय ही समय है – जो काम-धाम भी करते हैं या फिर कभी काम-धाम छोड़कर धर्म का पुस्तकी अध्यापन करते हैं – परीक्षाएँ उत्तीर्ण हो जाते हैं — और “अध्यात्म” की सीढ़ियों पर सीढियां चढ़कर खुद “स्वामीपद” तक पहुँच जाते हैं ! (मेरे लेख को पढ़ते हुए हँसना मना नहीं है !!!)
जब मैं बहुत छोटा था, तब एक दिन मैंने पिताजी से पूछा –
……“दादा – दादा …क्या सच में / सही में / वास्तव में – ईश्वर है ?”….
उन्होंने क्या कहा पता है ? ….
…..”मुझे तो अब तक दिखाई नहीं दिया – तुम ढूंढो – तुम्हें मिलेगा तो विश्वास करो !”
उन्होंने यह नहीं कहा कि “ईश्वर है” — यह भी नहीं कहा कि “ईश्वर नहीं है “!!
मेरे पिताजी विज्ञान के विद्यार्थी नहीं थे – फिर भी उन्होंने विज्ञान का सही अर्थ समझा था | “तुम खुद खोज करो, दिखाई दे, साबित हो जाये, तो विश्वास करो !”
विज्ञान के विद्यार्थियों को यह समझने की जरुरत है कि किसी गणित / जीवशास्त्र / रसायनशास्त्र / भौतिकशास्त्र का मतलब सिर्फ यह नहीं कि उस विषय की कठिनाइयों को सीखकर उनका उपयोग करो या नौकरी पाकर खुश रहो — विज्ञान सीखने का सही अर्थ है – विज्ञान का दृष्टिकोन अपनाओ – विचार करो – ज्ञान की आराधना करो – तर्क करो – बहस करो – नए की खोज करो …. कर्म करो – अपने पास-पड़ोस के “अशिक्षित अन्धश्रद्ध” और “सुशिक्षित अन्धश्रद्ध” लोगों में विचार करने की शक्ति जगाओ – अपने बेटों बेटियों को सोचना सिखाओ – तर्क से सोचने की आदत सिखाओ – उन्हें ये समझाओ – कि बिना सबूत के, किसी बात पर विश्वास न करें ! उन्हें यह बताओ कि जन्म सिर्फ एक ही है – पाप-पुण्य जैसी कोई बात नहीं है | हम इस सृष्टि के जीव हैं – जो यहाँ एक बार ही जन्म लेते हैं |
….. (यहाँ मुझे स्टीफन हाकिंग और जयंत नारलीकर की लिखी कई बातें याद आ रही हैं !!!)
इसलिए – विज्ञान की “डिग्री” नहीं, “दृष्टि” चाहिए |
“विज्ञान” कहता है –
“खिडकियाँ खोलो – दीवारें गिरा दो – जो तुम्हे पता है मुझसे कहो – जो मुझे समझा है, मैं तुम्हें समझाऊंगा – हम बहस करेंगे – ढूंढेंगे – नए की खोज करेंगे – आगे बढ़ेंगे – बहुत काम करेंगे – जो आज सच है – वो कल शायद झूठ साबित हो – फिर सच का शोध करेंगे ….. और ज्ञान सबको बाटेंगे ….”